भीमाबाई सकपाल
(14 फरवरी 1852 – 18 मई 1897): भीमाबाई का जन्म 14 फरवरी 1852 में महाराष्ट्र के ठाणे जिले के मुरवाड़ गांव में हुआ था । आगे चलकर इनका परिवार पनवेल के नजदीक उलवा बंदरगाह पर निवास करने चला गया और फिर कुछ दिनों बाद वह परिवार पनवेल जाकर बस गया । उनके पिता धर्मा मुरवाड़कर ब्रिटिश सेना में सूबेदार मेजर के पद पर कार्यरत थे । उनका परिवार क्षेत्र का सम्मानित परिवार था और उनके सभी छः चाचा भी ब्रिटिश सेना में महत्वपूर्ण पदों पर थे । स्वाभाविक है कि उनका रहन-सहन बड़ा ठाट-बाट का था । सूबेदार मेजर अपनी बेटी धर्मा मुरवाड़कर के लिए वर ढूंढ रहे थे । उसी समय ब्रिटिश सेना में रामजी मालो जी सकपाल सैनिक के रूप में भर्ती हुए थे । इत्तिफाक से सूबेदार मेजर धर्मा मुरवाड़कर का तबादला उसी टुकड़ी में हुआ जिसमें रामजी सकपाल सैनिक थे और उन की भेंट रामजी सकपाल से हुई तो वे रामजी के व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए, धीरे धीरे उन दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गये । सूबेदार मेजर धर्मा नें अपनी बेटी का विवाह रामजी सकपाल के साथ करने का निष्चय कर लिया लेकिन कहाँ वे मेजर सूबेदार और रामजी मामूली सैनिक, इसके अतिरिक्त उनके परिवार मे आर्थिक असमानता भी बहुत अधिक थी जिसके कारण मेजर घर्मा के परिवार के लोग इस प्रस्ताव का विरोध किया, लेकिन अंत में सभी सहमत हो गये और रिश्ता पक्का हो गया । 1865 को धर्मा मुरवाड़कर ने अपनी बेटी भीमा मुरवाड़कर का विवाह रामजी सकपाल के साथ कर दिया उस समय भीमाबाई की उम्र 13 वर्ष और रामजी सकपाल की उम्र 21 वर्ष थी ।
भीमाबाई बड़ी बातूनी, स्वाभिमानी, जिद्दी और धर्मपरायण स्वभाव की थी, उनका रंग गोरा, आखें बड़ी बड़ी और आकर्षक थी, बाल घुंघराले, ललाट चौड़ा तथा नाक थोड़ा चपटी थी । भीमाबाई के विवाह के बाद भी आर्थिक विपन्नता के कारण मायके में उनकी मां के अतिरिक्त उनसे कोई बात नहीं करता था । मायके वालों के इस तरह के व्यवहार को वे सहन न कर सकीं औऱ उन्होंने अपने मायके वालों से दृढ़ संकल्प के साथ कहा कि “मैं तभी मायके आऊंगी जब जेवरों से भरी पूरी अमीरी प्राप्त करूंगी, तब तक मेरी प्रतीक्षा न की जाय ।”
भीमाबाई के पति रामजी सकपाल कर्तव्यपरायण, उद्यमशील व खेल प्रेमी थे, वे क्रिकेट, फुटबाल आदि खेलों में प्रवीण थे तथा उनकी उनमें अत्यधिक रूचि थी । खेलों में उनकी यह रूचि उनके एक अंग्रेज अधिकारी के नजर में आई । उसने यह शिफारिश की कि सैनिको के स्कूल में शिक्षक के रूप में रामजी की नियुक्ति की जाय । परिणामस्वरूप पूणे के पंतोजी टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में रामजी को शिक्षण प्रशिक्षण हेतु भेजा गया । अध्यापन पेशे की शिक्षा लेते समय उन्हें जो वेतन मिलता था उसमें से कुछ भाग वे अपनी पत्नी के लिए बम्बई भेज देते थे । रामजी पुणे में और भीमा बाई बम्बई में, दो स्वतंत्र घर होने के कारण आर्थिक परेशानियां शुरू हो गई रामजी द्वारा भेजे गये पैसों से परिवार का चलाना मुश्किल हो गया । भीमाबाई जीविका चलाने के लिए सांताक्रूज के सड़कों पर कंकड़ पत्थर पसारने का कार्य किया करती थीं । अपनी व्यावहारिक बुद्धि के कारण वे रूखी-सूखी में ही प्रसन्न रहती थीं ।
पुणे के पंतोजी टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर रामजी अध्यापक बने और पदोन्नत होकर फौजी छावनी के स्कूल में प्राधानाध्यापक बने । वे प्रधानाध्यापक के पद पर 14 वर्षों तक कार्यरत रहे और अंततः उन्हें सूबेदार मेजर के पद पर पदोन्नति हुई, साथ ही भीमाबाई का प्रण जो उन्होंने अपनी सम्पन्नता हेतु किया था, वह भी पूरा हुआ । उनके परिवार को अब काफी प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी । भीमाबाई अब अपने मायके आने जाने लगी थीं ।
1890 तक भीमाबाई और राम जी को 13 संतानो की प्राप्ति हुई थी लेकिन उनमें से मात्र 6 ही जीवित रह पाई जिनमें दो पुत्र बालाराम व आनन्दराव तथा चार पुत्रियां गंगाबाई, रमाबाई, मंजुला और तुलसी, शेष संताने बचपन में ही मर गईं । इतने बच्चों की पैदाईश, व्रत-उपवास, पूजा-अर्चना, आतिथ्य सत्कार तथा बच्चों के मृत्युशोक के कारण भीमाबाई का स्वास्थ निरंतर गिरता गया । कई प्रकार के उपचार जारी थे लेकिन उचित चिकित्सा न मिलने के कारण उनके स्वास्थ्य में अनुकूल सुधार नहीं हो रहा था क्योंकि कोई बैद्य अछूत की चिकित्सा नहीं करता था कई छावनियों में तबादला होने के बाद सूबेदार मेजर रामजी सकपाल का स्थानान्तरण मध्य प्रदेश के महू जिले के लश्करी छावनी में स्थिर हो गया । महू की जलवायु भीमाबाई के अनुकूल सिद्ध हुई औऱ उनके स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार होना शुरू हुआ ।
महू में एक असाधारण घटना घटी, रामजी के एक चाचा वैरागी हो गये थे जिनका काफी समय से पता ही नहीं था । संयोग से एक बार वे साधू जत्थे के साथ महू आ गये वे रामजी के बहुत अनुनय विनय के बाद भी उनके घर तो नहीं गये लेकिन उन्होंने रामजी को आशीर्वाद दिया कि “अपने कर्तव्य से इतिहास पर चिरंतर छाप डालकर अपने वंश का नाम अमर करनेवाला एक पुत्र तुम्हारे घर में पैदा होगा ।” संत पुरूष का आशीर्वाद फलीभूत हुआ और महू में ही 14 अप्रैल 1891 को चौदहवीं संतान के रूप में भीमराव के रूप में अनमोल पुत्ररत्न प्राप्त हुआ । सूबेदार मेजर रामजी सकपाल को भीमराव के जन्म के एक वर्ष के अंदर ही एक बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा । 1892 में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया, परिणामस्वरूप 1894 में रामजी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गई, उस समय भीमराव ढाई वर्ष के थे । पेंशन के रूप में थोड़ी सी राशि मिलती थी जिससे पूरे परिवार का भरण पोषण बड़ी कठिनाई से हो पाता था इसलिए भीमाबाई को पुनः बाहर मजदूरी कार्य के लिए निकलना पड़ता था । कठिन परिस्थितियों में रामजी ने अपने पैतृक गांव आम्बावड़े जाने का निश्चय किया और पैतृक जमीन पर खेती करना प्रारम्भ किया ।
जब भीमराव पांच वर्ष के हुए तो भीमाबाई अपने इस पुत्र का स्कूल में दाखिला के लिए पति रामजी पर दबाव बनाना शुरू किया । वे कहती भीम अब बड़ा हो गया है उसका अब दाखिला क्यों नहीं करवाते । यद्यपि गांव के समीप दापोली में सैनिक छावनी थी लेकिन शिक्षा की कोई समुचित व्यवस्था न थी । अतः हारकर बड़े पुत्र आनंदराव के साथ भीमराव का भी दाखिला दापोली के प्राथमिक स्कूल में करा दिया । छोटी सी पेंशन में छः लोगों की पारिवारिक जिम्मेदारी सम्भालना सम्भव न था अतः रामजी नौकरी के तलास में थे लेकिन वहां गांव में नौकरी नहीं मिल सकती थी और दापोली के अनुचित वातावरण व बच्चों की पढ़ाई को ध्यान में रखकर तथा नौकरी के लिए उन्होंने बम्बई का रूख किया जहां उन्हे कोई नौकरी नहीं मिली, अंततः वे सतारा आ गये और यहां उन्हें लोक निर्माण विभाग में स्टोरकीपर की नौकरी मिल गई ।
सतारा में सकपाल परिवार ने जीवन-यापन का तरीका तो ढूंढ लिया परन्तु बच्चों के लिए समाज में घुलने मिलने की समस्या खड़ी हो गई । भीमराव के भाई बहन तो जान चुके थे कि वे अछूत हैं और समाज के लोग उन्हें इज्जत नहीं देते, उनसे बचते हैं, लेकिन भीमराव के अवोध मन में इस बात का जरा भी आभास न था । जब वे घर के बाहर निकलते तो दौड़कर सब बच्चों के साथ मिलजुल जाना चाहते थे । खेल रहे बच्चों के झुंड में शामिल होकर खेलना चाहते तो कोई बच्चा आगे आकर कहता कि तुम हमारे साथ नहीं खेल सकते… तुम अछूत हो , जा यहां से भाग जा । भीमराव रोते हुए घर चले आते, माँ पूछती क्या हुआ भीम तु रो क्यों रहा है… तो वे मां से सिसकते हुए कहते मां कोई मुझे कोई अपने साथ नहीं खेलाता । सब बच्चे मुझे भगा देते हैं और कहते हैं… तुम अछूत हो । भीमाबाई को इससे बड़ा दुःख पहुंचता, वे भीमराव को सीने से लगाते हुए कहतीं “वे ठीक कहते हैं हम अछूत हैं । वे बड़ी जाति के बच्चे हैं तू उनके साथ खेलने की जीद क्यों करता है? क्यों जाता है वहां? बेटा तू अपने भाई बहनों के साथ खेल लिया कर ।
अब यहां बच्चों के स्कूल में दाखिला की समस्या खड़ी हो गई । भीमाबाई अपने पति से कहती कि भीमराव का दाखिला किसी स्कूल में करा दो उसकी पढ़ाई शुरू होने पर उसका ध्यान पढ़ाई की ओर लगा रहेगा, तो वह बड़े जाति के बच्चों के साथ खेलने की जिद्द नहीं करेगा । रामजी कुछ न कुछ बहाना बनाकर टाल देते लेकिन एक दिन भीमाबाई के ज्यादा जोर देने पर उन्होंने बताया कि एक प्रधानाचार्य भीम का अपने स्कूल में दाखिला इस शर्त पर करने के लिए तैयार हो गया है कि बच्चा जूते रखने वाले स्थान पर बैठकर अध्ययन करेगा । यह सुनकर भीमाबाई ने अपना सर पीट लिया “भगवान इतना अन्यायी नहीं हो सकता । ” अगले दिन भीमराव का दाखिला हो गया । वे अपने घर से टाटपट्टी लेकर जाते और जूते रखने के स्थान पर जगह बनाकर बैठ जाते । स्कूल जाने से पहले भीमाबाई ने भीमराव से बोली “एक बात याद रखना बेटा हमलोग महार जाति के हैं और अछूत हैं । तुम्हे समाज में बहुत अपमान सहना पड़ेगा, बड़ी घृणा झेलनी पड़ेगी । इसकी परवाह न करना, किसी से उलझना नहीं । तुम्हे पढ़ना है, बिना पढ़े कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता । जब तुम बड़े आदमी बन जाओ तो समाज की इस गंदी रीति को बदल डालना । यही मेरी इच्छा है ।”
भीमराव पढ़ने में अत्यंत तीब्र बुद्धि के थे । जब रामजी भीमराव के स्कूल जाते तो प्रधानाध्यापक भीमराव की बड़ी तारीफ करते । घर आकर वे जब भीमाबाई को बताते तो भीमाबाई के आंखों में खुशी के आंसू आ जाते । रामजी नौकरी व घर का काम पूरी निष्ठा से कर रहे थे । इसी बीच सतारा जिले की खटाव तहसील में अकाल पड़ा सरकार ने राहत के कार्य शुरू किए, इस कारण रामजी सकपाल का तबादला कोरेगांव हो गया और वे अकेले ही कोरेगांव चले गये । पूरे परिवार की देखभाल का भार पुनः भीमाबाई के कंधे पर आ गया । भीमाबाई भीमराव की शिक्षा हेतु उनकी देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी इस कारण वे अपने स्वास्थ का ध्यान नहीं रख पाती, इस प्रकार भीमराव के भविष्य के बारे में सुनहरे सपने देखते देखते एक दिन बीमार पड़ गई । रामजी ने भीमाबाई की बड़ी देखभाल की, बहुत भाग दौड़ की लेकिन सब बेकार गया क्योंकि उन्हें एक ऐसे वैद्य की जरूरत थी जो उनके रोग को पहचान सके और सही दवा देकर उनकों रोग के चंगुल से छुड़ा सके । लेकिन एक अछूत के घर कोई वैद्य आने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता, सभी अच्छे वैद्य ऊंची जाति के थे ।
वैद्य अपना धर्म बचाते रहे और भीमाबाई उचित इलाज व दवा के अभाव में भीमराव के भविष्य के सुनहरे सपने अपने आंखों में लिए 18 मई 1897 को अपनीं आंखों को सदैव के लिए बंद कर लिया । उस समय भीमराव की उम्र मात्र 6 वर्ष थी । मां की मृत्यु पर भीमराव बहुत रोये, भीमाबाई इस बात का सदैव ध्यान रखती की भीमराव कभी भूखा न रहे । उसी मां के मरने पर भीमराव कई दिनों तक रोटी को हाथ नहीं लगाए । पिता रामजी ने भीमराव को बहुत समझाया “बेटा यदि तुम ऐसे ही रोते रहोगे तो तुम्हारी मां के सपनों का क्या होगा? तुम नहीं जानते, तुम्हारी मां के आंखों में तुम्हे बड़ा आदमी बनाने के कितने सपने थे । बेटा उठो, खाना खाओ और पढ़ाई में लग जाओ । वे सपने तुम्हे पूरे करने हैं ।” अगले दिन से भीमराव नियमित स्कूल जाने लगे, मां के आंखों के सपने अब उनके दिल में थे ।