नई दिल्ली. पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डॉ. बी आर आंबेडकर (Dr. BR Ambedkar) का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है. महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के समकालीन रहे आंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जातिप्रथा का विनाश नहीं हो जाता, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है. उनकी बहुत सारी किताबें हैं, लेकिन '
The Annihilation of caste' सबसे महत्वपूर्ण किताब है. इस किताब में डॉ. आंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती. जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो आंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो. उनके जीवनकाल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है, लेकिन आज यह एक सच्चाई है. हर पार्टी का नेता उनके चरणों में वोट के लिए शीश झुकाता है. लेकिन आंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रहे नेता उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठाते .
कई बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे जाति की संस्था का विनाश हो सके. पिछले 25 वर्षों की उनकी राजनीति पर नजर डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है. बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर हैं. दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाती रही हैं. चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके. जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता.
बहुत सारे नेताओं को मालूम ही नहीं है की आंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है. उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है, जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला. लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की ओर से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला था. जब डॉक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए. शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा. आंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है.
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है. डॉ आंबेडकर के समर्थन का दम ठोकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रुचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं. जाति के विनाश के लिए डॉक्टर आंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कहीं भी कोई कोशिश नहीं की जा रही है. लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है.
इस पुस्तक में आंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है. उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा. एक आदर्श समाज के लिए उनका यही सपना था. एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए. एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए.
डॉ आंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है. जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं, लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते. इस अधिकार को आंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा, लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था. आंबेडकर दर्शन के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी. ब्राहमणों के अधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया.
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जाता है. सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है और उनके विनाश के लिए आंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस अंदोलन को नेतृत्व प्रदान करें. वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डॉ आंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं.
कांशीराम और मायावती ने प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का जहर मनु नाम के एक व्यक्ति ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को खत्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे. उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें.
डॉ आंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसको मानती रहेंगी. हां इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें, जिनकी ताकत के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे, उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.
उन्होंने कहा कि, मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूं कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक और वैधानिक आधार दिया. जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. डॉ आंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है, लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं. यही जाति का शिकंजा है और इसे खत्म किए बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती.
अगर आर्थिक विकास की गति को तेज किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराए जाएं तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिबा फुले, डॉ राम मनोहर लोहिया और डॉ आंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा.