सावन विशेष
बैतूल जिले के गांवो से गायब हो गए सावन के झूलेअमराई में पेड़ों पर लगे झूलो में झूलती थी बहू - बेटियां
सचित्र आलेख - रामकिशोर दयाराम पंवार रोंढ़ावाला
बैतूल, ज्यादा दिन नहीं हुए जब गांव में सावन के झूलो में गांव की बहू - बेटिया झूला झूलती थी। उस दौर में सावन के झूलो को लेकर अनेक फिल्मी गाने भी बजाए जाते थे। सावन के झूलो को समर्पित एक गाना आज भी कर्ण प्रिय है। वर्ष 1979 में अमिताभ बच्चन और रेखा अभिनीत फिल्म जुर्माना का लता मंगेश्कर की सुरीली आवाज में गाया गीत सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ..... सावन के झूलों ने मुझको बुलाया..... विरह जैसे गीत सावन में झूला झूलने की परंपरा को याद दिलाते हैं। इस बार दो महीने का सावन माह के लगभग 15 दिवस बीत चुके है लेकिन जिले के किसी भी गांव से सावन के झूलो की कोई खबर नहीं आई है। गांवो से लेकर शहरो के अनेक पेड़ों पर ना तो सावन के झूले पड़ते हैं और ना ही बाग- बगीचों में सखियों की रौनक देखने को मिल पा रही है। वर्ष 1980 के दशक में गांव - गांव में सावन लगते ही गांव की अमराई में सावन के झूलों का आनंद लिया जाता था। विवाहित बेटियों को ससुराल से बुलाया जाता था। वे मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थी और वहीं बरसती बूंदें मौसम का मजा और दोगुना कर देती थी। अब गांव से लेकर शहर तक में पसरा सन्नाटा बता रहा है कि उसने बरसो पुरानी परंपरा को निगल लिया है। मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिले में वर्तमान में दस नगरीय क्षेत्र है तथा जिले में 556 ग्राम पंचायतो के 1465 गांवो में अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं। जिले में दस बड़े गांव है जो शहर बनने की तैयारी कर रहे है। ग्राम रोंढ़ा की श्रीमती गंगा बाई देवासे बताती है कि पहले सावन का महीना आते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। पहला सावन मायके में ही मनाने की परंपरा रही है। ऐसे में बहन - बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और हाथों में मेहंदी रचा कर पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं। अब गांव में ऐसा न होना गांव की बरसो पुरानी परम्परा के समाप्त होने का अहसास करा रही है। वही शहरो में ऐसा कहा जा रहा है कि जगह के अभाव में शहरों में तो कहीं झूले नहीं डाले जाते। कुछ लोगो ने अपने आलिशान बंगलो में झूले बना रखे है जो सावन के कदापि नहीं है। शहरो में अनाधुन हरे भरे पेड़ों की कटाई के चलते पेड़ बचे ही नहीं है। गांव में पेड़ गांव की अमराई में जरूर देखने को मिलजाते है लेकिन पेड़ो पर झूला डालकर झूलने का मजा ही अलग होता था। ग्राम रोंढ़ा में बिहाई श्रीमति कसिया बाई स्व.दयाराम पंवार कहती है कि उनके मायके में सावन के झूला झूले बरसो बीत गए। आज अपने गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी में झूला डाल कर झूला झूलने के दिनो को याद करती कहती है कि अगर यही हाल रहा तो बच्चो के पालने भी घरो में देखने को नहीं मिलेगें। आज की आधुनिकता ने जिस तरह गांव के सावन के झूलो को निगल लिया है उसी कड़ी में अब घरो के पालनो की बारी आने वाली है। कुछ लोगो का मानना है कि कुछ शहरो में यदा - कदा केवल कृष्ण मंदिरों में सावन माह में भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी भी निभाई जा रही है। बैतूल के इतिहासकार एवं पुस्तक मेरा बेतूल के लेखक रामकिशोर पंवार के अनुसार उनके पुरखे मध्यप्रदेश - राजस्थान से लगे धारा नगरी से आकर यहां पर बसे है। राजस्थान के मेवाड़ में बाबा अपनी बेटियों, बहुओं के लिए और बेटियों के अपनी सखियों और बहुएं देवरानी - जेठानी के साथ पेंग देती हुई झूले झूलने की परंपरा देखने को मिल जाती है। सावन के मेलों में पलकीदार झूलों, डोलर में कौन सवार नहीं होना चाहता। मंदिरों में विशेष रूप से वैष्णव मंदिरों में हिंडोले में लड्डू गोपाल के विग्रह को झूला देने के लिए श्रद्धा उमड़ती है। सावन के कजरारे पक्ष से ही हिंडोले शुरू होते हैं। श्रीनाथजी के मंदिर में तो हिंडोल विजय होने तक नित्य उत्सव होते हैं। अनेक हिंडोला कीर्तन राग मेघ , मल्हार, हिंदोल आदि रागिनियों में गाए जाते हैं। उनवास में तैंतीस लाख देवियां बड़लिया पर हिंदने झूलने क्या लगती है, मेवाड़ में थाली मांदल बज उठती है और गांव -गांव गवरी रमण शुरू हो जाता है। मेवाड़ सच में सावन भादौ में झूलों में झूलता है और प्रकृति के रंजन रूप को जीता है लेकिन इसे महज दुर्र:भाग्य माना जाए कि मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिले मे जिस तरह से सावन के झूले गायब हो चुके है ऐसे वह दिन दूर नहीं जब चैत्र माह के फागुन के झूलो के बारे में सिर्फ किताबो में पढऩे का मिलेगा...?